लेख-निबंध >> छितवन की छाँह छितवन की छाँहविद्यानिवास मिश्र
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प्रस्तुत है छितवन की छाँह निबन्ध संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पृष्ठभूमि
भूमिका से घबराने वाले पाठक से मैं पहले ही निवेदन कर दूँ कि मैं भूमिका लिखने नहीं जा रहा हूँ। मुझे याद है कि बचपन में मैं गोरखपुर के नार्मल स्कूल के फाटक पर जब-जब यह सूचना लिखी देखता, ‘आम रास्ता नहीं है’, तब-तब न जाने क्यों उस फाटक में से होकर दूसरे छोर निकल जाने की इच्छा ज़ोर मारने लगती थी और पीछे झाँकते-झूकते सरपट निकल भी जाता था। बराबर मन में भय लगा रहता था कि कोई देख न रहा हो। बल्कि एक दिन कानून से बचने के लिए मैं ‘रास्ता’ के ‘रा’ के बीच में से जोड़कर ‘सस्ता बना दिया, जिससे कोई टोके भी तो सफ़ाई देने के लिए यह प्रमाण रह जाये। इस प्रयत्न में कितना बचकानापन था, यह मैं आज भले समझ सकूँ, पर उन दिनों तो इस सूझ पर मैं बलि जाने लगा था। वही बात मेरे साहित्य के अहाते में अनधिकार प्रवेश पर भी घटती है। आम‘ रास्ता नहीं है’ की तख्ती को मसखरेपन में पलटकर मैंने अपना प्रवेश विधिसम्मत मान लिया है, नहीं तो सचमुच मैं न तो इस नार्मल स्कूल का अध्यापक ही हूँ, न छात्र ही; यहाँ तक कि मैं इसके माडल स्कूल की शिशु-कक्षाओं का भी उपछात्र नहीं हूँ और इसलिए अनुचित एवं अवैध प्रवेश का अपराधी तो सर्वथैव हूँ। हाँ यह दूसरी बात है कि ‘आम रास्ता नहीं है’ की तख्ती लगाने की बात ही स्वयं उपहसनीय हो, क्योंकि इसके बावजूद भी अवज्ञा करने वालों पर कानून की पाबन्दी बरती नहीं जाती, बरतने में भी व्यावहारिक कठिनाइयाँ पड़ती हैं। इसलिए कानून से बचने का मेरा उद्योग शायद कुछ लोगों को निरी बेवकूफी ही लगे तो कोई आश्चर्य नहीं है। मैं अपनी ओर से इसे बेवकूफी नहीं मानता, कम-से-कम अपने भय को तो नहीं ही मानता। कारण यह है कि मैं साहित्य-नदी के बारे में यह डौंड़ी नहीं पिटवाना चाहता, ‘अब रैहें न रैहें यहै समयो बहती नदी पाँय पखारि लै री’ बहुतेरे पाँय पखार रहे हैं और कुछ तो भैंसों की तरह मड़िया भी ले रहे हैं, पर मैं स्वयं अमर जीवनदायिनी गंगा की धार की दुर्दशा देख नहीं सकता। इसलिए अपने छिछोरेपन के लिए कल्याणी भाषा में क्षमा-याचना न भी करूँ तो कम-से-कम मन-ही-मन ‘गलानि’ तो कर ही सकता हूँ। उसी ‘गलानि’ की सफाई में मुझे कुछ लिखना है।
अनजाने आदमी की अपनी अनजानी गलती के इतिहास को भी भूमिका कोई कहना चाहे तो मुझे आपत्ति नहीं है, वैसे भूमिका के स्वीकृत माने में यह भूमिका नहीं है। असल में लक्षणा की कृपा कहिये या अर्थ-विस्तार का जादू कि आज भूमिका का अर्थ है भूमि को छोड़कर आकाश-पाताल एक करते हुए अन्त में अन्तरिक्ष में ओझल हो जाना, पर लोगों की नम्रता है कि उसे आकाशिका, पातालिका या अन्तरिक्षिका न कहकर महज भूमिका कह देते हैं। सो मेरी वैसी क्षमता नहीं है, मैं तो अपने निबन्ध-लेखन की विशेषताओं का बयान करने जा रहा हूँ। उस बयान की यह लम्बी-चौड़ी भूमिका जरूर मैंने बाँधी है, पर बयान मेरा सीधा सपाट होगा इतना विश्वास रखिये।
संस्कृत के पठन-पाठन की ही मेरे कुल में परम्परा रही है, पर मैं रुद्री के ‘गणनां त्वां’ के आगे न जा सका और ए बी सी डी सीखने लगा। यूनिवर्सिटी में पहुँचते-पहुँचते संस्कृत अध्ययन की ओर मेरा प्रत्यावर्त्तन हुआ और तभी एक ओर राबर्ट लुई स्टीवेंसन, टामस डिक्वेंसी, चार्ल्स लैम्ब और स्विफ्ट की कलमनवीसी से प्रभावित हुआ दूसरी ओर वाणभट्ट, भवभूति एवं अभिनवगुप्त पादाचार्य की भाषा शक्ति का भक्त बना। मेरी तबियत भी गुलेरी, पूर्णसिंह माधव मिश्र और बालमुकुन्द गुप्त की डगर पर चलने के लिए मचलने लगी और कागज-स्याही का मैंने काफी दुरुपयोग किया भी। भाषाजडम्बर के पचीसों ठाठ बाँधें और उधेड़ दिये। यहाँ तक कि उन दिनों मित्रों के पास पत्र भी लिखता तो पन्ने रंग देता, बहुत से दाद भी देते और बहुतेरे तो चमत्कृत होकर रह जाते, कुछ जवाब ही नहीं देते। बाद में कुछ दिनों के लिए यह रसीला व्यापार जब केवल एक गँवई वाली तक सीमित रह गया था और उधर से प्रत्याशित प्रतिदान न मिलने से निराशा होने लगी थी, तब मेरी आँखें और संस्कृत के समास से भोजपुरी के व्यास की ओर एकदम खिंच आया। साहित्य का अधकचरा अध्ययन, मित्रों का प्रोत्साहन, पूरबी का स्नेहांचल वीजन और अपना बेकार जीवन...मेरे मध्य वित्तीय निबन्धों को यही दाय मिला है। पूर्वोक्त रससिद्ध लेखकों का ऋणी हूँ, यह कहकर उनको भी अपने साथ घसीटूँ, इतना दुस्साहस मुझमें नहीं है किन्तु जिन मित्रों ने मुझे इस ओर आने के लिए प्रोत्साहित क्यों दुरुत्साहित किया है, उनके नाम मैंने अपने आभार में गिना दिये हैं।
व्यक्तियों के प्रभाव की बात तो यह हुई, जिन विचारों की छाप मेरे ऊपर मेरी जानकारी में पड़ी है, उनका भी कुछ ब्यौरा दे दूँ। व्यक्तिप्रधान निबन्ध में कुछ लोग विचारत्व की खास उपयोगिता नहीं देखते और वैसे लोगों को शायद मेरे निबन्धों में विचारत्व दिखे भी न, परन्तु मैं अपने आस्थाओं का अभिनिवेश रखे बिना कहीं भी नहीं रहना चाहता, निबन्धों में तो और भी नहीं। वैदिक सूक्तों के गरिमामय उद्गम से लेकर लोकगीतों के महासागर तक जिस अविच्छिन्न प्रवाह की उपलब्धि होती है, उस भारतीय भावधारा का मैं स्नातक हूँ। मेरी मान्यताओं का वही शाश्वत आधार है मैं रेती में अपनी डेंगी नहीं चलाना चाहता और न जमीन के ऊपर बने रुँधे तालाबों में छपकोरी खेलना चाहता हूँ। इसलिए प्रचलित शब्दावली में अगर प्रगतिशील नहीं हूँ तो कम-से-कम प्रतिगामी भी नहीं ही हूँ। वैसे अगर भारत के राम और कृष्ण तथा सीता और राधा को प्रगति के दायरे से मतरूक़ न घोषित किया जाये तो मैं भी अच्छा खासा प्रगतिशील अपने को कह सकता हूँ, और अगर राम और कृष्ण के नाम के साथ प्रतिगामिता लगी हुई हो तो मुझे प्रतिगामी कहलाने में सुख ही है।
कुछ दिनों तक सम्मेलन की राजनैतिक गोलबन्दी में ज़रूर पड़ गया था, पर किसी साहित्यिक गोलबन्दी में मैं शरीक नहीं रहा हूँ। इसलिए न मुझको किसी का वरद हस्त प्राप्त है, न किसी के पूर्वग्रह की कड़वी घूँट ही। मानवता की समानभूमि पर मुझे सभी मिल जाते हैं। यों तो ‘सहस नयन’ ‘सहस दस काना’ और ‘दो सहस’ रसना वाले प्रणम्य महानुभाव जो न देख-सुन-कह सकें, उनसे मैं पनाह माँगता हूँ। इतना मैं और कह दूँ कि विलायती चीजों के आदान से मुझे विरोध नहीं है, बशर्ते कि उतनी मात्रा में प्रदान करने की अपने में क्षमता भी हो। इस सिलसिले में मुझे काशी के एक व्युत्पन्न पंडित के बारे में सुनी कहानी याद आ रही है। उन पंडित के पास जर्मनी से कुछ विद्वान आये (शायद उन दिनों जो विद्वान संस्कृत सीखने आते थे, उनका घर जर्मनी ही मान लिया जाता था, खैर) और उनके पास टिक गये। स्वागत-सत्कार करते-करते पंडित जी को एक दिन सूझ आयी कि इन लोगों को भारतीय भोजन भारतीय ढंग से कराया जाये। सो वह इन्हें गंगा जी में नौका-विहार के लिए ले गये और गरमा-गरम कचालू बनवाकर भी लेते गये। नाव पर कचालू दोने में परसा गया, पंडित जी ने भर मुँह-कौर कचालू झोंक लिया, इसलिए उनकी देखादेखी जर्मन साहबों ने भी काफी कचालू एक साथ मुँह में डाला, और बस मुँह में जाने की देरी थी, लाल मिर्च का उनके संवेदनशील सुकंठ से संस्पर्श होते ही, वे नाच उठे और कोट-पैंट डाले ही एकदम गंगा जी में कूद पडे। किसी तरह मल्लाहों ने उन्हें बचाया। पर इसके बाद उनका ‘अदर्शनं लोपः’ हो गया। दूसरे लोगों ने पंडित जी को ऐसी अभद्रता के लिए भलाबुरा कहा तो उधर से जवाब मिला...‘इन लोगें ने हमें अंडा-शराब जैसी महँगी और निशिद्ध चीजें खानी सिखलायीं तो ठीक और मैंने शुद्ध चरपरे भारतीय भोजन की दीक्षा एक दिन इन लोगों को देने की कोशिश की तो मैं अभद्र हो गया ?’’ लोग इस उत्तर से निरुत्तर हो गये। तो कहने का मतलब यह कि आदन-प्रदान का यह भी एक तरीका है और शास्त्रसम्मत तरीका है, काशीधाम की इस पर मुहर लगी हुई है। परन्तु मैं साहित्य में ऐसे आदान-प्रदान का पक्षपाती नहीं हूँ। सूफियों और वेदान्तियों के जैसे आदान-प्रदान का मैं स्वागत करने को तैयार हूँ, नहीं तो अपनी बपौती बची रहे, यही बहुत है।
इस प्रसंग में आज नाम आता है मार्क्स और फ्रायड का। अर्थ और काम के विवेचन में इनकी देन महनीय है, इसमें सन्देह नहीं किन्तु जब भारत में इनके अनुकूलन (एडाप्टेशन की बात आती है तो बरबस हमारा ध्यान अपने धर्म की ओर चला जाता है।) ‘रेलीजन’ से ‘धर्म’ में कितना भेद है, यह जो नहीं जानता वह भारतीय संस्कृति की समन्विति का ठीक-ठीक साक्षात्कार कर ही नहीं सकता। जन संस्कृति की बात भी जो लोग आज बहुत करते हैं, वे ‘जन’ का इतिहास परखे बिना ही। भारत का धर्म किसी शासन-व्यवस्था का कवच या आवरण नहीं है, वह स्वयं भारतीय जीवन का अन्तर्मर्म है। उस धर्म के जितने लक्षण कहे गये हैं, सबमें से यही ध्वनि निकलती है
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अनजाने आदमी की अपनी अनजानी गलती के इतिहास को भी भूमिका कोई कहना चाहे तो मुझे आपत्ति नहीं है, वैसे भूमिका के स्वीकृत माने में यह भूमिका नहीं है। असल में लक्षणा की कृपा कहिये या अर्थ-विस्तार का जादू कि आज भूमिका का अर्थ है भूमि को छोड़कर आकाश-पाताल एक करते हुए अन्त में अन्तरिक्ष में ओझल हो जाना, पर लोगों की नम्रता है कि उसे आकाशिका, पातालिका या अन्तरिक्षिका न कहकर महज भूमिका कह देते हैं। सो मेरी वैसी क्षमता नहीं है, मैं तो अपने निबन्ध-लेखन की विशेषताओं का बयान करने जा रहा हूँ। उस बयान की यह लम्बी-चौड़ी भूमिका जरूर मैंने बाँधी है, पर बयान मेरा सीधा सपाट होगा इतना विश्वास रखिये।
संस्कृत के पठन-पाठन की ही मेरे कुल में परम्परा रही है, पर मैं रुद्री के ‘गणनां त्वां’ के आगे न जा सका और ए बी सी डी सीखने लगा। यूनिवर्सिटी में पहुँचते-पहुँचते संस्कृत अध्ययन की ओर मेरा प्रत्यावर्त्तन हुआ और तभी एक ओर राबर्ट लुई स्टीवेंसन, टामस डिक्वेंसी, चार्ल्स लैम्ब और स्विफ्ट की कलमनवीसी से प्रभावित हुआ दूसरी ओर वाणभट्ट, भवभूति एवं अभिनवगुप्त पादाचार्य की भाषा शक्ति का भक्त बना। मेरी तबियत भी गुलेरी, पूर्णसिंह माधव मिश्र और बालमुकुन्द गुप्त की डगर पर चलने के लिए मचलने लगी और कागज-स्याही का मैंने काफी दुरुपयोग किया भी। भाषाजडम्बर के पचीसों ठाठ बाँधें और उधेड़ दिये। यहाँ तक कि उन दिनों मित्रों के पास पत्र भी लिखता तो पन्ने रंग देता, बहुत से दाद भी देते और बहुतेरे तो चमत्कृत होकर रह जाते, कुछ जवाब ही नहीं देते। बाद में कुछ दिनों के लिए यह रसीला व्यापार जब केवल एक गँवई वाली तक सीमित रह गया था और उधर से प्रत्याशित प्रतिदान न मिलने से निराशा होने लगी थी, तब मेरी आँखें और संस्कृत के समास से भोजपुरी के व्यास की ओर एकदम खिंच आया। साहित्य का अधकचरा अध्ययन, मित्रों का प्रोत्साहन, पूरबी का स्नेहांचल वीजन और अपना बेकार जीवन...मेरे मध्य वित्तीय निबन्धों को यही दाय मिला है। पूर्वोक्त रससिद्ध लेखकों का ऋणी हूँ, यह कहकर उनको भी अपने साथ घसीटूँ, इतना दुस्साहस मुझमें नहीं है किन्तु जिन मित्रों ने मुझे इस ओर आने के लिए प्रोत्साहित क्यों दुरुत्साहित किया है, उनके नाम मैंने अपने आभार में गिना दिये हैं।
व्यक्तियों के प्रभाव की बात तो यह हुई, जिन विचारों की छाप मेरे ऊपर मेरी जानकारी में पड़ी है, उनका भी कुछ ब्यौरा दे दूँ। व्यक्तिप्रधान निबन्ध में कुछ लोग विचारत्व की खास उपयोगिता नहीं देखते और वैसे लोगों को शायद मेरे निबन्धों में विचारत्व दिखे भी न, परन्तु मैं अपने आस्थाओं का अभिनिवेश रखे बिना कहीं भी नहीं रहना चाहता, निबन्धों में तो और भी नहीं। वैदिक सूक्तों के गरिमामय उद्गम से लेकर लोकगीतों के महासागर तक जिस अविच्छिन्न प्रवाह की उपलब्धि होती है, उस भारतीय भावधारा का मैं स्नातक हूँ। मेरी मान्यताओं का वही शाश्वत आधार है मैं रेती में अपनी डेंगी नहीं चलाना चाहता और न जमीन के ऊपर बने रुँधे तालाबों में छपकोरी खेलना चाहता हूँ। इसलिए प्रचलित शब्दावली में अगर प्रगतिशील नहीं हूँ तो कम-से-कम प्रतिगामी भी नहीं ही हूँ। वैसे अगर भारत के राम और कृष्ण तथा सीता और राधा को प्रगति के दायरे से मतरूक़ न घोषित किया जाये तो मैं भी अच्छा खासा प्रगतिशील अपने को कह सकता हूँ, और अगर राम और कृष्ण के नाम के साथ प्रतिगामिता लगी हुई हो तो मुझे प्रतिगामी कहलाने में सुख ही है।
कुछ दिनों तक सम्मेलन की राजनैतिक गोलबन्दी में ज़रूर पड़ गया था, पर किसी साहित्यिक गोलबन्दी में मैं शरीक नहीं रहा हूँ। इसलिए न मुझको किसी का वरद हस्त प्राप्त है, न किसी के पूर्वग्रह की कड़वी घूँट ही। मानवता की समानभूमि पर मुझे सभी मिल जाते हैं। यों तो ‘सहस नयन’ ‘सहस दस काना’ और ‘दो सहस’ रसना वाले प्रणम्य महानुभाव जो न देख-सुन-कह सकें, उनसे मैं पनाह माँगता हूँ। इतना मैं और कह दूँ कि विलायती चीजों के आदान से मुझे विरोध नहीं है, बशर्ते कि उतनी मात्रा में प्रदान करने की अपने में क्षमता भी हो। इस सिलसिले में मुझे काशी के एक व्युत्पन्न पंडित के बारे में सुनी कहानी याद आ रही है। उन पंडित के पास जर्मनी से कुछ विद्वान आये (शायद उन दिनों जो विद्वान संस्कृत सीखने आते थे, उनका घर जर्मनी ही मान लिया जाता था, खैर) और उनके पास टिक गये। स्वागत-सत्कार करते-करते पंडित जी को एक दिन सूझ आयी कि इन लोगों को भारतीय भोजन भारतीय ढंग से कराया जाये। सो वह इन्हें गंगा जी में नौका-विहार के लिए ले गये और गरमा-गरम कचालू बनवाकर भी लेते गये। नाव पर कचालू दोने में परसा गया, पंडित जी ने भर मुँह-कौर कचालू झोंक लिया, इसलिए उनकी देखादेखी जर्मन साहबों ने भी काफी कचालू एक साथ मुँह में डाला, और बस मुँह में जाने की देरी थी, लाल मिर्च का उनके संवेदनशील सुकंठ से संस्पर्श होते ही, वे नाच उठे और कोट-पैंट डाले ही एकदम गंगा जी में कूद पडे। किसी तरह मल्लाहों ने उन्हें बचाया। पर इसके बाद उनका ‘अदर्शनं लोपः’ हो गया। दूसरे लोगों ने पंडित जी को ऐसी अभद्रता के लिए भलाबुरा कहा तो उधर से जवाब मिला...‘इन लोगें ने हमें अंडा-शराब जैसी महँगी और निशिद्ध चीजें खानी सिखलायीं तो ठीक और मैंने शुद्ध चरपरे भारतीय भोजन की दीक्षा एक दिन इन लोगों को देने की कोशिश की तो मैं अभद्र हो गया ?’’ लोग इस उत्तर से निरुत्तर हो गये। तो कहने का मतलब यह कि आदन-प्रदान का यह भी एक तरीका है और शास्त्रसम्मत तरीका है, काशीधाम की इस पर मुहर लगी हुई है। परन्तु मैं साहित्य में ऐसे आदान-प्रदान का पक्षपाती नहीं हूँ। सूफियों और वेदान्तियों के जैसे आदान-प्रदान का मैं स्वागत करने को तैयार हूँ, नहीं तो अपनी बपौती बची रहे, यही बहुत है।
इस प्रसंग में आज नाम आता है मार्क्स और फ्रायड का। अर्थ और काम के विवेचन में इनकी देन महनीय है, इसमें सन्देह नहीं किन्तु जब भारत में इनके अनुकूलन (एडाप्टेशन की बात आती है तो बरबस हमारा ध्यान अपने धर्म की ओर चला जाता है।) ‘रेलीजन’ से ‘धर्म’ में कितना भेद है, यह जो नहीं जानता वह भारतीय संस्कृति की समन्विति का ठीक-ठीक साक्षात्कार कर ही नहीं सकता। जन संस्कृति की बात भी जो लोग आज बहुत करते हैं, वे ‘जन’ का इतिहास परखे बिना ही। भारत का धर्म किसी शासन-व्यवस्था का कवच या आवरण नहीं है, वह स्वयं भारतीय जीवन का अन्तर्मर्म है। उस धर्म के जितने लक्षण कहे गये हैं, सबमें से यही ध्वनि निकलती है
‘चोदना लक्षणो धर्मः, आगे बढ़ने की प्रेरणा धर्म है, ‘यतोऽभ्युदयनिः श्रेयःसंसिद्धि स धर्मः’
जिससे अभ्युदय और परम और विश्वव्यापी कल्याण हो वह धर्म है। धर्म व्यक्ति और समाज दोनों में समरसता स्थापित करने वाला माध्यम है। उस धर्म पर बेंठन जरूर पड़ता गया, पर इन खोलों को चीरने के बजाय भारतीय जीवन के मूल को उखाड़ फेंकना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए मार्क्स और फ्रायड की स्थापनाओं के शीर्ष पर व्यास का यह वाक्य मुझे झिलमिलाता मिलता है :
ऊर्ध्वबाहुर्विरोम्येष न च कश्चित श्रृणोति माम्।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते।।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते।।
अर्थ और काम की आधार-रेखा के लिए धर्म ही शीर्षबिन्दु है और सुघटित समाज के लिए तीनों का समत्रिकोण अत्यावश्यक है।
कहाँ से कहाँ मैं बहक गया और सो भी विक्रमादित्य के न्यास-सिंहासन पर बैठकर, ‘बाज सुराग कि गाँड़र ताँती’, इसी को न ज्ञानलव-दुर्विदग्धता कहते हैं। खैर अपनी बात मुझे कहनी थी, इसलिए थोड़ा आत्मप्रलाप खप सकता था।
बस इतनी ही पृष्ठभूमि है जिसे देने का लोभ मैं संवरण न कर सका, यद्यपि मेरे मित्र नामवर सिंह ने मुझे इतना लिखने से भी बरजा था, उनके विचार में भूमिका लिखने का अर्थ आलोचक का कार्य सरल कर देना होता है, परन्तु मेरी इस बकवास का एकमात्र प्रयोजन है, पाठक और अपने बीच की दूरी को मिटा देना। अब अनुषंगवश आलोचक का कार्य भी सरल हो जाये तो मैं कुछ हर्ज नहीं समझता, विचारों को यों ही फुरसत नहीं रहती और कैंची चलाने में भी आजकल कम कष्ट नहीं है, बाजार में लोहमटिया की कैंचियाँ आतीं हैं एकदम भूथरीं। उनकी सुविधा के लिए दो-चार अंग्रेजी विशेषण यहाँ और दर्ज कर दूँ, जिनसे वे मुझे अलंकृत करना चाहेंगे, इसोटेरिक (दीक्षागम्य), डिकेडेन्ट (ह्रासोन्मुख), रिऐक्शनरी (प्रतिक्रियावादी), डिलेटांटी (पल्लवग्राही) और बुर्जुआ (परश्रमजीवी), दूसरे विशेषण भी मिल सकते हैं और मिलेंगे, पर मेरी आगे जनकारी नहीं है, अब तो मेरे निबन्ध ही जानें कि क्या उन्हें नसीब है।
कहाँ से कहाँ मैं बहक गया और सो भी विक्रमादित्य के न्यास-सिंहासन पर बैठकर, ‘बाज सुराग कि गाँड़र ताँती’, इसी को न ज्ञानलव-दुर्विदग्धता कहते हैं। खैर अपनी बात मुझे कहनी थी, इसलिए थोड़ा आत्मप्रलाप खप सकता था।
बस इतनी ही पृष्ठभूमि है जिसे देने का लोभ मैं संवरण न कर सका, यद्यपि मेरे मित्र नामवर सिंह ने मुझे इतना लिखने से भी बरजा था, उनके विचार में भूमिका लिखने का अर्थ आलोचक का कार्य सरल कर देना होता है, परन्तु मेरी इस बकवास का एकमात्र प्रयोजन है, पाठक और अपने बीच की दूरी को मिटा देना। अब अनुषंगवश आलोचक का कार्य भी सरल हो जाये तो मैं कुछ हर्ज नहीं समझता, विचारों को यों ही फुरसत नहीं रहती और कैंची चलाने में भी आजकल कम कष्ट नहीं है, बाजार में लोहमटिया की कैंचियाँ आतीं हैं एकदम भूथरीं। उनकी सुविधा के लिए दो-चार अंग्रेजी विशेषण यहाँ और दर्ज कर दूँ, जिनसे वे मुझे अलंकृत करना चाहेंगे, इसोटेरिक (दीक्षागम्य), डिकेडेन्ट (ह्रासोन्मुख), रिऐक्शनरी (प्रतिक्रियावादी), डिलेटांटी (पल्लवग्राही) और बुर्जुआ (परश्रमजीवी), दूसरे विशेषण भी मिल सकते हैं और मिलेंगे, पर मेरी आगे जनकारी नहीं है, अब तो मेरे निबन्ध ही जानें कि क्या उन्हें नसीब है।
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छितवन की छाँह
छितवन से कुछ दिनों से अधिक परच गया हूँ। छितवन की उन्मादिनी सुरभि के साथ इस परिचय का एक कारण है; गन्ध को ही मैं परम तत्त्व मानता हूँ। बचपन से ही इस पार्थिव तत्त्व की ओर मन अधिक दौड़ता रहा है, और आज शब्द के आकाश-पथ में विहार करते हुए भी पार्थिव गन्ध बरबस कभी न कभी चित्त के चटुल विहंग को खींच लेती है। इस मिट्टी का गुण है गन्ध, जैसे आकाश का शब्द, वायु का स्पर्श, जल का रस और तेज का रूप। इसीलिए रूप के तेज पुजारी चकाचौंध से अंधे हो जाते हैं, उन्हें देखने से भी आँच लगती है, रस के पुजारी शीतल और जड़ हो जाते हैं, स्पर्श के पुजारी को बाई छू लेती है, शब्द का पुजारी शून्य हो जाता है, पर पृथ्वी के गुण गन्ध का पुजारी पृथ्वी का ही नहीं बल्कि समस्त विश्व का अमर श्रृंगार बन जाता है। गन्ध और गन्धवती की पूजा आसान नहीं। शब्द और आकाश तो कोने-कोने में अभिव्याप्त, ध्यान भर देने की आवश्यकता है और बुलाने पर समक्ष उपस्थित, रूप कुछ दुर्लभ है भी तो उसके आह्वान के लिए वैसा ही ग्राहक तेज भी अपेक्षित है, नहीं तो एकचारी पथ है ही नहीं, वहाँ दोनों ओर से प्रयत्न होना चाहिए जिसकी कोई गारंटी नहीं...स्पर्श में वह रंगीनी और मस्ती नहीं, एक क्षणिक तृप्ति है और गहरी उत्तेजना, बस आगे कुछ नहीं...रस चेतना नष्ट कर देने तथा जड़ता भर देने में ही अपनी सार्थकता समझता है, रसाकार भी इसीलिए जड़ात्मा कहलाता है...और गन्ध में प्रमोद-तत्त्व अपनी पूर्ण कला के साथ अवतीर्ण है। गन्ध का वाहक बनने में वायु अपना गौरव मानती है, गन्ध का आमोद पाकर रस उच्छ्वसित होकर आकृष्ट कर पाता है, गन्ध की लहक पाकर स्पर्श सुखद और मोहक हो जाता है और रूप को गन्ध न मिले तो फिर क्या, ‘‘निर्गन्धा इव किंशुकाः’ डहडहाये पलाश की ओर आँख रमना चाहे भी तो मन नहीं रमता। शब्द और गन्ध तो एक वृत्त के ही दो एक दूसरे के पूरक अर्धवृत्त हैं, शब्द महाशून्य का प्रतीक, गन्ध महापूर्ण का प्रतीक शब्द सच्चिदानन्द की अनुभूति का चित्रपट है गन्ध उस चित्रपट का स्थूल रूप है। इसीलिए शब्द तत्त्व के परमधाम के सत् और चित् भी परिमल-परिभोग से ही आनन्दवान् बन पाते हैं-
दिव्यधनुनीमकरन्दे परिमलपरिभोगसच्चिदानन्दे।
श्रीपतिपदारविन्दे भवभयखेदच्छिदे सदा वन्दे।।
श्रीपतिपदारविन्दे भवभयखेदच्छिदे सदा वन्दे।।
शब्द की शून्य भीत पर ही इसी गन्ध के रंग-बिरंगे चित्र खींचने में ही युगों-युगों से भारती अपना जन्म सफल करती रही है। इस गन्ध और इस गन्ध की अधिष्ठात्री पृथ्वी की अर्चना इसलिए परम अर्चना है और इसमें बखेड़ा भी कम नहीं। पार्थिव साधना में विवेक और बुद्धि की, अनन्यता और एकाग्रता की, श्रद्धा और निष्ठा की तथा सन्तोष और क्षमा की जितनी तीव्र आवश्यकता है उतनी किसी अन्य साधना में नहीं हो सकती। यह संसिद्धि जन्मजन्मान्तर का हिसाब लगाती है, यहाँ सफलता पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों का बलिदान माँगती है और यहाँ शान्ति अशान्ति का चिर विश्राम। यहाँ अपने कृत से कोई नहीं नापा जाता अपने कार्य से नापा जाता है, यहाँ पुण्य की इतनी बड़ाई नहीं जितनी पुण्य के प्रयत्न की, पुण्य की प्रात्याशा की। यहाँ पाप की उतनी अगति नहीं, जितनी पुण्य के अभिमान की। यहाँ कीर्ति जीकर मरने में नहीं, बल्कि मर कर जीने में है। गन्ध-साधना, मैं बार-बार कहता हूँ, सबसे चरम और कठिन साधना है।
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लोगों की राय
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